फ़ित्ना-ज़ा फ़िक्र हर इक दिल से निकाल अच्छा है आए गर हुस्न-ए-ख़याल उस को सँभाल अच्छा है मेरे एहसास-ए-ख़ुदी पर न कोई ज़द आए तू जो दे दे मुझे बे-हर्फ़ सवाल अच्छा है आप मानें न बुरा गर तो कहूँ ऐ नासेह साहब-ए-क़ाल से तो साहिब-ए-हाल अच्छा है बे-ख़याली न रहे ख़ाम-ख़याली से बचो दिल में बस जाए जो उन का ही ख़याल अच्छा है तेरे रुख़ पर हो मसर्रत तो मिरा दिल मसरूर तेरे चेहरे पे न हो गर्द-ए-मलाल अच्छा है पुर्सिश-ए-ग़म भी नहीं नीज़ मुलाक़ात नहीं आप को हम से ग़रीबों का ख़याल अच्छा है कोई कहता है मुबारक हो तुझे दौर-ए-फ़िराक़ मैं समझता हूँ मगर रोज़-ए-विसाल अच्छा है मुल्क-गीरी की हवस में हो तो फ़ित्ना ख़ुद ही और फ़ित्ना को मिटाए तो क़िताल अच्छा है बे-नियाज़-ए-ग़म-ए-उक़्बा जो 'नज़र' तुझ को करे आल-ओ-औलाद वो अच्छी न वो माल अच्छा है