जहाँ न दिल को सुकून है न है क़रार मुझे ये किस मक़ाम पे ले आई याद-ए-यार मुझे ये बात सच है मैं बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-रसीदा हूँ मगर सलाम किया करती है बहार मुझे सितम ये है वो कभी भूल कर नहीं आया तमाम उम्र रहा जिस का इंतिज़ार मुझे बस अपने-आप सँवरना भी कोई बात हुई तू अपनी ज़ुल्फ़ की सूरत कभी सँवार मुझे अबस है दोस्तो तशरीह-ए-वादा-ए-फ़र्दा अब इस का ज़िक्र भी होता है नागवार मुझे तमाम उम्र झुलसता रहा मैं सहरा में कहीं शजर नज़र आया न साया-दार मुझे बहार-ए-नौ ये हक़ीक़त है या फ़रेब-ए-निगाह लिबास-ए-गुल नज़र आता है तार तार मुझे गुनाह जिस से न सरज़द हुआ हो ऐ 'आजिज़' उसी को हक़ है वो कह दे गुनाहगार मुझे