फ़ितरत-ए-अहबाब से महरम रहे ख़ुश रहे हालाँकि सर्फ़-ए-ग़म रहे जब तक इस दार-ए-फ़ना में हम रहे मुब्तला-ए-गर्दिश-ए-पैहम रहे हम बने हैं तख़्ता-ए-मश्क़-ए-सितम इम्तिहाँ-गाह-ए-वफ़ा में हम रहे फ़स्ल-ए-गुल में भी रहा ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ हम ब-हर-हालत असीर-ए-ग़म रहे गुल में भी आती रही बू-ए-तुराब हासिल-ए-दौराँ से हम महरम रहे गर्दिशों ने तल्ख़ कर दी ज़िंदगी मौत से हम फिर भी ना-महरम रहे उन के जौर-ओ-ज़ुल्म से आई न मौत हाए ये अल्ताफ़ भी तो कम रहे कौन सी 'बिस्मिल' में ऐसी बात थी मुद्दतों इस मौत पे मातम रहे