फ़ैज़-मामूर फ़ज़ाओं से लिपट कर रो लें फिर मदीने की हवाओं से लिपट कर रो लें वक़्त-ए-रुख़्सत दिल-ए-मुज़्तर की तमन्ना थी यही आप के दर के गदाओं से लिपट कर रो लें अब्र छाया है हवाएँ हैं मदीने से हैं दूर जी तड़पता है घटाओं से लिपट कर रो लें हश्र में इन के सबब वो मुतवज्जह होंगे क्यूँ न हम अपनी ख़ताओं से लिपट कर रो लें हम से बेहतर हैं कि उन तक ये पहुँच जाती हैं इन्ही ख़ुश-बख़्त दुआओं से लिपट कर रो लें कर्बला ही के तसव्वुर से ये आता है ख़याल दहर की सारी बलाओं से लिपट कर रो लें क़द्र-दाँ इन के हैं जब वो शह-ए-ख़ूबान-ए-जहाँ 'तहनियत' अपनी वफ़ाओं से लिपट कर रो लें