फ़ज़ा में ज़ुल्फ़ के जादू अगर बिखर जाते हवा के साथ बहुत लोग दर-ब-दर जाते भला हुआ कि हुई जिंस-ए-ग़म की अर्ज़ानी हम अपने दाग़ दिखाने नगर नगर जाते न जलता कोई चराग़-ए-सदा तो सब सर-ए-शाम लिपट के अपने घरों के सुतूँ से मर जाते इक ऐसा लम्हा-ए-शाम-ए-ख़िज़ाँ भी गुज़रा है मुझे जो देखते इस लम्हा तुम तो डर जाते हमें न रोक रवाँ हैं मिसाल-ए-पारा-ए-अब्र हमारे बस में जो होता तो हम ठहर जाते 'मुसव्विर' आ के न ठहरा कोई भी ख़्वाबों में उदास रातों की आँखों में रंग भर जाते