फ़ज़ाएँ ख़ुश्क थीं घर की तो बाहर क्यों नहीं देखा दरीचों से वो हंगामों का मंज़र क्यों नहीं देखा ज़मीं के ख़ुश्क लब ये मौसमों का ज़हर पीते हैं तो तुम ने आसमानों का समुंदर क्यों नहीं देखा फ़ज़ाओं की कसक से कुछ तक़ाज़े भी बदलते हैं हवस लम्हात को तुम ने कुचल कर क्यों नहीं देखा सुना ये है समुंदर में जज़ीरे भी नुमायाँ थे हटा कर बादबाँ तुम ने ठहर कर क्यों नहीं देखा जो घर में छोड़ आया था कफ़न ओढ़े हुए रिश्ते न जाने उस ने बस्ती को पलट कर क्यों नहीं देखा सुना है बर्फ़ से भी उँगलियाँ लोगों की जलती हैं तो तुम ने सर्द अँगारों को छू कर क्यों नहीं देखा जनाब-ए-'रिंद' तुम तो पूजते आए हो पत्थर को जो दरवाज़े पे चस्पाँ है वो पत्थर क्यों नहीं देखा