हिज्र-मौसम था सताती रही तन्हाई हमें छत पे तारा भी जो टूटा तो सदा आई हमें क़हक़हा-ज़ार फ़ज़ाओं में अजब भीड़ सी थी घर का माहौल जो देखा तो हँसी आई हमें हम सराबों के मुसाफ़िर थे मगर जानते थे किस के दम पर न डराती रही पुर्वाई हमें छाँव ने आबला-पाई के सिवा कुछ न दिया धूप देती रही एहसास-ए-तवानाई हमें हम को तो दलदली सम्तों का भी अंदाज़ा था रेत दरिया की भी मालूम थी गहराई हमें 'रिंद' ख़ामोश सी यलग़ार थी चौराहे पर काँच के घर से जो बाज़ार में ले आई हमें