फ़ज़ाओं से गुज़रता जा रहा हूँ ख़लाओं में बिखरता जा रहा हूँ मैं रेगिस्तान में बैठा हूँ लेकिन समुंदर में उतरता जा रहा हूँ ज़माना लम्हा लम्हा जी रहा है मैं लम्हा लम्हा मरता जा रहा हूँ वो जितने दूर होते जा रहे हैं मैं उतना ही सँवरता जा रहा हूँ चला हूँ अपने से दो हात करने मगर ख़ुद से भी डरता जा रहा हूँ मैं नुक़्ता बन के इक मरकज़ पे यारो न जाने क्यूँ ठहरता जा रहा हूँ मिटाने पर भी मैं उर्दू की मानिंद सँवरता और निखरता जा रहा हूँ मैं काली झील में डूबा था ख़ुद ही मगर ख़ुद ही उभरता जा रहा हूँ मैं 'क़ैसर' अपनी आँखों से टपक कर किसी दिल में उतरता जा रहा हूँ