कब सुने ज़ंजीर मुझ मजरूह दीवाने की अर्ज़ नीं पहुँचती कान तक उस ज़ुल्फ़ के शाने की अर्ज़ गर्मी अहल-ए-बज़्म से मत कर कि मैं होता हूँ दाग़ शम्अ' की ख़िदमत में है इतनी ही परवाने की अर्ज़ शीशा मुझ दिल सा न पावे और तिरी आँखों सा जाम ले अगर साक़ी हज़ारों साल मयख़ाने की अर्ज़ दिल को वीराँ मत करो ये है जुनूँ का पा-ए-तख़्त ऐ परी-ज़ादों कभू सुनिए भी दीवाने की अर्ज़ फ़स्ल जाती है 'यक़ीं' और बाग़बाँ से एक यार कोई करता नीं हमारे बाग़ में जाने की अर्ज़