फ़लक के रंग ज़मीं पर उतारता हुआ मैं तमाम ख़ल्क़ को हैरत से मारता हुआ मैं दो चार साँस में जीता हूँ एक अर्से तक ज़रा से वक़्त में सदियाँ गुज़ारता हुआ मैं जो मेरे सामने है और दिल-ओ-दिमाग़ में भी चहार-सम्त उसी को पुकारता हुआ मैं मिरे नुक़ूश पे कारी-गरी रुकी हुई है शिकस्ता चाक से ख़ुद को उतारता हुआ मैं तुम्हारी जीत में पिन्हाँ है मेरी जीत कहीं तुम्हारे सामने हर बार हारता हुआ मैं