फ़नकार है तो हाथ पे सूरज सजा के ला बुझता हुआ दिया न मुक़ाबिल हवा के ला दरिया का इंतिक़ाम डुबो दे न घर तिरा साहिल से रोज़ रोज़ न कंकर उठा के ला अब इख़्तिताम को है सख़ी हर्फ़-ए-इल्तिमास कुछ है तो अब वो सामने दस्त-ए-दुआ' के ला पैमाँ वफ़ा के बाँध मगर सोच सोच कर इस इब्तिदा में यूँ न सुख़न इंतिहा के ला आराइश जराहत-ए-याराँ की बज़्म है जो ज़ख़्म दिल में हैं सभी तन पर सजा के ला थोड़ी सी और मौज में आ ऐ हवा-ए-गुल थोड़ी सी उस के जिस्म की ख़ुशबू चुरा के ला गर सोचना हैं अहल-ए-मशिय्यत के हौसले मैदाँ से घर में एक तू मय्यत उठा के ला 'मोहसिन' अब उस का नाम है सब की ज़बान पर किस ने कहा कि उस को ग़ज़ल में सजा के ला