ज़ख़्म-ए-नादीदा बहर-तौर दिखाने थे बहुत मौसम-ए-हिज्र के क़िस्से भी सुनाने थे बहुत उस के हंगामों के सब लोग दिवाने थे बहुत मेरी ख़ामोश मिज़ाजी के फ़साने थे बहुत एक मैं जी न सकी दे के ज़माने को फ़रेब यूँ तो इस शहर में जीने के बहाने थे बहुत वो कभी दिल की हसीं शाख़ पे बैठा ही न था मेरे अंदर के परिंदे के ठिकाने थे बहुत मैं सियह रात में थी ख़ुद ही मुनव्वर 'राहत' मेरे अंदर भी चराग़ों के ख़ज़ाने थे बहुत