फ़क़त उम्मीद से गुलशन की वीरानी नहीं जाती ये जाते जाते जाती है ब-आसानी नहीं जाती जो हम ने कह दिया तस्दीक़ का मुहताज होता है हमारी बात अक्सर मुस्तनद मानी नहीं जाती जुनूँ वालों को अब तो वाक़ई नादाँ समझते हैं न जाने क्यों ख़िरद वालों की नादानी नहीं जाती बरहना है अगर इंसाँ मोहज़्ज़ब हो न मुख़्लिस हो फ़क़त मल्बूस से इंसाँ की उर्यानी नहीं जाती तो फिर कैसे न हो हम को तग़य्युर का यक़ीं 'यकता' जब अपनी शक्ल ख़ुद हम से ही पहचानी नहीं जाती