हम रिंद-ए-ख़राबात को अच्छा न बुरा याद साक़ी का कहा याद न वाइज़ का कहा याद फिर छेड़ गई बाद-ए-सबा शाख़-ए-सुमन को फिर आ गई उन की कोई मख़्सूस अदा याद जब पहला क़दम जादा-ए-मंज़िल पे रखा था वो अज़्म-ए-सफ़र याद है वो लग़्ज़िश-ए-पा याद ऐ ज़ौक़-ए-तलब आ के मिरी राह-बरी कर है किस का तजस्सुस मुझे ये भी न रहा याद ये कुफ़्र-ए-मोहब्बत है कि ईमान-ए-मोहब्बत करता हूँ तुम्हें याद तो आता है ख़ुदा याद