फ़रेब खा के भी शर्मिंदा-ए-सुकूँ न हुए न कम हुआ किसी मंज़िल पे वलवला दिल का ये सोच कर तिरी महफ़िल से हम चले आए कि एक बार तो बढ़ जाए हौसला दिल का पलट के अब न कभी लखनऊ से गुज़रेगा निकल गया है बहुत दूर क़ाफ़िला दिल का हरीफ़-ए-इश्क़ कोई हो हरीफ़-ए-ग़म तो नहीं किसी से हो न सकेगा मुक़ाबला दिल का कोई किसी का नहीं हम-ज़बाँ ज़माने में करें तो किस से करें जा के अब गिला दिल का शिकस्त खाने का यारा नहीं प क्या कीजे इक अजनबी से पड़ा है मुक़ाबला दिल का तुम्हारी नज़्र भी लाए जो हम तो क्या लाए ज़रा सँभाल के रखना ये आबला दिल का