ना-क़ाबिल-ए-यक़ीं था अगरचे शुरूअ' में सूरज मगर ग़ुरूब हुआ था तुलूअ' में मुल्ला को दे दिया है नमाज़ों का बाक़ी काम ख़ुद को लगा लिया है ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ूअ' में सिर्फ़ एक चेहरा एक ही नाम एक ही ख़याल होता है सब के साथ यही सब शुरूअ' में इतने हलाला-बाज़ अगर घात में न हों क्या ऐसा फ़ासला है तलाक़-ओ-रुजूअ' में शायद मिरी नमाज़ यहीं ख़त्म हो गई इक उम्र हो गई कि रुका हूँ रूकूअ' में मोहमल सही प ताब-ओ-तवानाई देखिए उस ऐन से जो आई है इस आब-ओ-जूअ' में उर्दू में तो बस एक वुज़ू और इक नमाज़ दो दो नमाज़ें होती हैं अरबी वुज़ूअ' में असलें तमाम नाचती गाती गुज़र गईं देखा नहीं किसी ने वफ़ूर-ए-फ़ुरूअ' में 'एहसास' क्या है ये 'ज़फ़र' 'इक़बाल' की तरह तौसीअ ऐन शे'र की हद्द-ए-वक़ूअ' में