फ़रियाद और तुझ को सितमगर कहे बग़ैर मानूँ न हश्र में तिरे मुँह पर कहे बग़ैर देखो ये रंग-ए-रुख़ का शगूफ़ा कि मेरा इश्क़ ज़ाहिर हुआ है कहने से बढ़ कर कहे बग़ैर मुँह देखता ही रह गया कहने को जब गया पल्टा मैं हालत-ए-दिल-ए-मुज़्तर कहे बग़ैर पकड़ो मिरी ज़बान तो सूरत से होशियार खोलेगी राज़ ये सर-ए-महशर कहे बग़ैर हकला के आज मैं ने कहा उस से अपना शौक़ तस्कीन-ए-दिल हुई न मुकर्रर कहे बग़ैर सुनने को तुम कहो तो मिरे दिल की एक बात बरसों से फिर रही है ज़बाँ पर कहे बग़ैर करता है हर सवाल ये हुज्जत की मश्क़ वो कोई जवाब ही नहीं क्यूँकर कहे बग़ैर माशूक़ ही तो कितना ही बद-तर हुआ इस का जौर बनती नहीं है बात ही बेहतर कहे बग़ैर माना कि दिल शिकन थीं सर-ए-बज़्म फब्तियाँ लेकिन न रह सका कोई मुझ पर कहे बग़ैर मैं ये समझ गया कि वो घर में नहीं है आज दरबाँ ने ख़ुद ही खोल दिया दरिया कहे बग़ैर क्या क्या कहे हैं शेर हसीनों के वस्फ़ में क्या 'शौक़' हो गया है सुख़नवर कहे बग़ैर