फ़र्त-ए-जज़्बात में जज़्बात को महदूद रखो यानी इस इश्क़ की बहुतात को महदूद रखो हुक्म-ए-हाकिम है कि इस देस में जीना है अगर चुप रहो और सवालात को महदूद रखो आओ सिखलाऊँ तुम्हें जीने का मैं ढंग नया बात बढ़ती हो अगर बात को महदूद रखो क्या सबब है जो कुदूरत है ज़माने-भर में हुक्म को समझो ख़िताबात को महदूद रखो आ ही निकले हो अगर दश्त-ए-मोहब्बत तो ये सर ख़म रखो और मफ़ादात को महदूद रखो