फ़स्ल-ए-गुल कब लुटी नहीं मालूम कब बहार आई थी नहीं मालूम हम भटकते रहे अंधेरे में रौशनी कब हुई नहीं मालूम कब वो गुज़रे क़रीब से दिल के नींद कब आ गई नहीं मालूम दर्द जब जब उठा हुआ महसूस चोट कब कब लगी नहीं मालूम बेबसी जिस की ज़ीस्त हो उस को ज़ीस्त की बेबसी नहीं मालूम नाज़ सज्दों पे है हमें लेकिन नाज़िश-ए-बंदगी नहीं मालूम अपनी हालत पे तेरे वहशी को क्यूँ हँसी आ गई नहीं मालूम होश आया तो मय-कदा न रहा हाए किस वक़्त पी नहीं मालूम मेरी जानिब वो देख कर बोले है कोई अजनबी नहीं मालूम दौर-ए-हाज़िर की बज़्म में 'बेकल' कौन है आदमी नहीं मालूम