फ़स्ल-ए-गुल तोहमत-ए-जुनूँ लाई बस्ती बस्ती हुई है रुस्वाई शहर में जब से आ गया हूँ तिरे और भी बढ़ गई है तन्हाई आरज़ू एक ना-शगुफ़्ता कली जो सर-ए-शाख़-सार मुरझाई आशिक़ी इक दबी हुई सी चोट भीगे मौसम में जो उभर आई ज़िंदगी शाम-ए-ग़म की बाँहों में इक सुलगती हुई सी तन्हाई लोग कहते हैं अहल-ए-दिल को कभी ज़िंदगी रास ही नहीं आई हौसला हो तो ऐ ग़म-ए-जानाँ कौन तेरा नहीं तमन्नाई