चाहत की नज़र आप से डाली भी गई है हसरत किसी आशिक़ की निकाली भी गई है तुम ने किसी बीमार को अच्छा भी किया है हालत किसी बिगड़े की सँभाली भी गई है तुम खेल समझते हो मगर ये तो बताओ आह-ए-दिल-ए-मुज़्तर कभी ख़ाली भी गई है क्या ख़ाक करूँ में ख़लिश इश्क़ का शिकवा ये फाँस कभी तुम से निकाली भी गई है झगड़े भी कहीं रश्क-ए-रक़ाबत के मिटे हैं उल्फ़त में कभी ख़ाम-ख़याली भी गई है 'मुज़्तर' को कभी हुस्न का सदक़ा भी दिया है ये भीक कभी आप से डाली भी गई है