फ़सुर्दगी नहीं बर्बादी-ए-जहाँ से हमें इसी ज़मीं को बदलना है आसमाँ से हमें मिला ये फ़ैज़ ग़म-ए-इश्क़-ए-जावेदाँ से हमें नजात हो गई आख़िर ग़म-ए-जहाँ से हमें तरीक़-ए-इश्क़ में रहबर हुई है गुमराही मिला है बाम-ए-यक़ीं ज़ीना-ए-गुमाँ से हमें इसी की ख़ाक से फिर आशियाँ बना लेंगे मलाल कुछ नहीं तख़रीब-ए-आशियाँ से हमें शिकस्ता नाव को मौजों में ख़ुद ही खेना है न नाख़ुदा से ग़रज़ है न बादबाँ से हमें हमारी तेज़-ख़िरामी का साथ दे न सके गिला है सुस्ती-ए-रफ़्तार-ए-हमरहाँ से हमें तुझी से बे-ख़ुदी-ए-शौक़ पूछते हैं बता ख़बर नहीं कि कहाँ ले गई कहाँ से हमें है इश्क़ ही के लिए हम को इश्क़ का सौदा ग़रज़ न सूद से मतलब न कुछ ज़ियाँ से हमें जबीं कहीं भी झुके दिल झुका है उस की तरफ़ अजीब रब्त है उस संग-ए-आस्ताँ से हमें सुकूँ है कुंज-ए-क़फ़स में न आशियाँ में है चैन अमाँ कहीं भी नहीं बर्क़-ए-बे-अमाँ से हमें जफ़ा-ए-दोस्त ने इतना किया है ख़ूगर-ए-ग़म कि ख़ौफ़ कुछ न रहा जौर-ए-दुश्मनाँ से हमें हर एक हर्फ़-ए-मोहब्बत पे बद-गुमानी है पड़ा है साबिक़ा इक यार-ए-नुक्ता-दाँ से हमें न जाने किस की तजल्ली की मुंतज़िर है निगाह फ़रार मिल न सका जल्वा-ए-बुताँ से हमें गई बहार तो मौसम पे इख़्तियार था क्या चमन में जी को लगाना पड़ा ख़िज़ाँ से हमें बग़ैर जुम्बिश-ए-अबरू इधर निगाह उठी क़तील-ए-नाज़ किया तीर-ए-बे-कमाँ से हमें तलब थी ख़ुम की मिला सिर्फ़ एक जाम-ए-तही मुआ'फ़ पीर-ए-मुग़ाँ रख इस अरमुग़ाँ से हमें हनूज़ क़ाफ़िले में इंतिशार बाक़ी है गिला अबस है 'वली' मीर-ए-कारवाँ से हमें