थी उस के लिए ख़्वाब की ता'बीर कोई हीर करती थी न राँझे को जो तस्ख़ीर कोई हीर होती है वो इज़्ज़त भी वो बेटी भी हया भी क्यूँ पहने फ़क़त इश्क़ की ज़ंजीर कोई हीर इस दर्जा तुम्हें पास-ए-ज़माना है भला क्यूँ क्या तुम न करोगे कभी ता'मीर कोई हीर इल्ज़ाम तो आता है फ़क़त इश्क़ के सर ही राँझन की तो करती नहीं तहक़ीर कोई हीर तू भी तो कभी सोच मिरी ज़ात के मेहवर क्या आप ही करती रहे तदबीर कोई हीर अब कौन सुनाएगा 'रबाब' इश्क़-सहीफ़ा करती जो नहीं अब कोई तफ़्सीर कोई हीर