हर एक सम्त उदासी की तितलियाँ जागीं तुलू-ए-शाम से पहले सियाहियाँ जागीं सफ़र में धूप की लज़्ज़त पस-ए-ग़ुबार हुई घने दरख़्तों के साए में गर्मियाँ जागीं दयार-ए-दिल में सदाओं का आईना टूटा नवाह-ए-जाँ में तअ'ल्लुक़ की किर्चियाँ जागीं कहाँ कहाँ नहीं दी हम ने रात भर दस्तक न कोई बाब ही चौंका न खिड़कियाँ जागीं दिलों के बीच तो हाइल था बर्फ़ का मौसम न जिस्म सुलगे न ख़्वाहिश की गर्मियाँ जागीं लहू में लम्स के शो'ले बुलंद होने लगे बदन में क़ुर्ब की पुर-शोर आँधियाँ जागीं किसी से कम न हुआ 'नाज़' फ़ासला ग़म का कि लोग जितना चले उतनी दूरियाँ जागीं