फ़ज़ा-ए-शहर को वहशत-असर तस्लीम करते हैं

फ़ज़ा-ए-शहर को वहशत-असर तस्लीम करते हैं
दिलों में छप के बैठा है जो डर तस्लीम करते हैं

हमारे घर की तन्हाई पे पूरा हक़ हमारा है
उसे हम अपने आँगन का शजर तस्लीम करते हैं

जो सच पूछो तो अब वो शय नहीं अपने ठिकाने पर
ये हम हैं जो उसे अब तक इधर तस्लीम करते हैं

मिरी शोरीदगी मुझ को कहीं थमने नहीं देती
भँवर मुझ को ब-ज़ात-ए-ख़ुद भँवर तस्लीम करते हैं

हमारी ज़ात से संजीदगी का ख़ोल उतरा है
ये तेरी दिल-नवाज़ी का असर तस्लीम करते हैं

हम इन महताब चेहरों के जिलौ में घूमने वाले
तिरी यादों को अपना हम-सफ़र तस्लीम करते हैं

वबा जो शहर में फैली है वो रुकने नहीं वाली
समझते हैं हमारे चारागर तस्लीम करते हैं

किसी इंसान से अपनी तबीअ'त मिल नहीं सकती
सब अपने आप को फ़र्रूख़-सियर तस्लीम करते हैं

तिरी क़ुदरत के आगे बस नहीं चलता किसी शय का
तिरे बंदे तिरे मुहताज-ए-दर तस्लीम करते हैं

अजब ज़ौक़-ए-नज़ारा दीदा-ए-पुरनम ने बख़्शा है
ज़िया-ए-अश्क को आब-ए-गुहर तस्लीम करते हैं

मैं अपनी शायरी से मुतमइन होता नहीं 'यावर'
अगरचे मुझ को सब अहल-ए-हुनर तस्लीम करते हैं


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