तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ ऐसे पस-मंज़र में क्या रहना सर-ए-मंज़र तो आ आज के सारे हक़ाएक़ वाहिमों की ज़द में हैं ढालना है तुझ को ख़्वाबों से कोई पैकर तो आ तू सही इक अक्स लेकिन ये हिसार-ए-आइना लोग तुझ को देखना चाहें बरून-ए-दर तो आ ज़ाइक़ा ज़ख़्मों का यूँ कैसे समझ में आएगा फेंकना है बंद पानी में कोई पत्थर तो आ जिस्म-ए-ख़ाकी तुझ को शीशे की हवेली ही सही ऐ चराग़-ए-जाँ कभी फ़ानूस के बाहर तो आ इस जगह आहंग में ढलती हैं दिल की धड़कनें आ मिरे गहवारा-ए-एहसास के अंदर तो आ बार-हा जी में ये आई उम्र-ए-रफ़्ता से कहूँ शाम होने को है ऐ भूले मुसाफ़िर घर तो आ