फ़ज़ा तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ की बदल जाए तो अच्छा है जो सीने में है वो पत्थर पिघल जाए तो अच्छा है मोहब्बत की हलावत हो तकल्लुम की सदाक़त हो ज़बाँ से बात कुछ ऐसी निकल जाए तो अच्छा है ख़ुदा से बे-नियाज़ी इस क़दर अच्छी नहीं होती अभी भी वक़्त है इंसाँ सँभल जाए तो अच्छा है किसी भी तरह पूरे हों हमारे दिल के सब अरमाँ हमारे दिल से ये अरमाँ निकल जाए तो अच्छा है वो जिस के नूर से सारा जहाँ रौशन था ऐ 'जाज़िब' वो हक़ की शम्अ' फिर इक बार जल जाए तो अच्छा है