फ़िक्र का गर सिलसिला मौजूद है फ़ाश है वो भी जो ना-मौजूद है उस से मुझ से फ़ासला कुछ भी नहीं एक दीवार-ए-अना मौजूद है सोचता हूँ कुछ अमल करता हूँ कुछ मुझ में कोई दूसरा मौजूद है सुनता रहता हूँ तिरे क़दमों की चाप वर्ना दिल में और क्या मौजूद है हिज्र में रोए तो जी हल्का हुआ दर्द के अंदर दवा मौजूद है हाल पूछा उस ने मुझ से बात की अब यक़ीन आया ख़ुदा मौजूद है अब तो 'आबिद' चश्म-ए-नम भी है ख़मोश रोज़ इक सदमा नया मौजूद है