कल रात दिल में यादों का मेला लगा रहा माज़ी को चश्म-ए-हाल से मैं देखता रहा तेरे बग़ैर जी तो न सकते थे हम मगर ग़म तेरा ज़िंदगी का सहारा बना रहा मुँह में ज़बाँ न रखते थे तेरी गली के लोग मैं पत्थरों से तेरा पता पूछता रहा ज़िंदान-ए-एहतियात में गुज़री तमाम उम्र मैं जुर्म-ए-आगही की सज़ा काटता रहा शल हो गया वजूद तो 'आबिद' खुला ये भेद मैं जिस को ढूँढता था वो मुझ मैं छुपा रहा