फिर आ गई इक बुत पे तबीअत को हुआ क्या टलती ही नहीं सर से मुसीबत को हुआ क्या महरूम फिर आया दर-ए-मय-ख़ाना से वाइज़ रिन्दान-ए-क़दह-ख़्वार की हिम्मत को हुआ क्या मक़्बूल-ए-दुआ हो न असर आह-ओ-फ़ुग़ाँ में इस दौर में तासीर-ए-मोहब्बत को हुआ क्या इस हुस्न-ओ-लताफ़त पे क्या संग-दिल ऐसा हैरत में हूँ अल्लाह की हिकमत को हुआ क्या जागे तो कोई अंजुमन-ए-ग़ैर में शब भर और छाई मिरे मुँह पे नदामत को हुआ क्या दानिस्ता नक़ाब उल्टे हुए हैं सर-ए-बाज़ार और उस पे ये कहते हैं कि ख़िल्क़त को हुआ क्या लो हम तो चले कौसर ओ तसनीम पे ज़ाहिद तुम यूँही कहे जाओ कि रहमत को हुआ क्या 'माइल' नहीं क्या और ज़माने में इलाही मुझ पर ही उतरती है ये आफ़त को हुआ क्या