फिर आप ने देखा है मोहब्बत की नज़र से गुज़रे न कहीं गर्दिश-ए-दौराँ भी इधर से पूछें तो ज़रा पेच-ओ-ख़म-ए-राह की बातें कुछ लोग अभी लौट के आए हैं सफ़र से शायद कहीं सूरज की किरन शाम को फूटे हम शम्अ' जलाए हुए बैठे हैं सहर से लोगो मिरी आशुफ़्ता-सरी पर न करो तंज़ इल्ज़ाम उतारो कोई उस ज़ुल्फ़ के सर से देखा न उन्हें दीदा-ए-हैरत ने दोबारा जल्वों को शिकायत है मिरी ताब-ए-नज़र से ख़ूशबू-ए-गुल-ओ-लाला छुपा लेते हैं पत्ते अब क़द्र-ए-हुनर है तो फ़क़त अर्ज़-ए-हुनर से तारे तो चमक अपनी दिखाते हैं सहर तक दिल डूबने लगता है मगर पिछले पहर से ग़ैरों की निगाहें तिरे जल्वों से हैं सैराब ऐ काश ये बादल मिरी आँखों पे भी बरसे ज़ुल्मत ही के साए में सकूँ ढूँडिए 'मज़हर' ख़ैरात बहुत माँग चुके नूर-ए-सहर से