शहर का शहर बसा है मुझ में एक सहरा भी सजा है मुझ में कई दिन से कोई आवारा ख़याल रास्ता भूल रहा है मुझ में रात महकी तो फिर आँखें मल के कोई सोते से उठा है मुझ में धूप है और बहुत है लेकिन छाँव इस से भी सिवा है मुझ में कब से उलझे हैं ये चेहरों के हुजूम कौन सा जाल बिछा है मुझ में कोई आलम नहीं बनता मेरा रंग ख़ुश्बू से जुदा है मुझ में ऐसा लगता है कि जैसे कोई आईना टूट गया है मुझ में आते जाते रहे मौसम क्या क्या जो फ़ज़ा थी वो फ़ज़ा है मुझ में