फिर छूट गया हाथ से दामान-ए-तमन्ना फिर लूट लिया बख़्त ने सामान-ए-तमन्ना फिर जम गया वीराने का नक़्शा मिरे घर में ताराज हुआ फिर सर-ओ-सामान-ए-तमन्ना हर सम्त अंधेरा है नज़र कुछ नहीं आता गुल हो गई फिर शम्अ'-ए-शबिस्तान-ए-तमन्ना मुद्दत से है इक मौज तह-ए-आब सी दिल में अब जोश पे आता नहीं तूफ़ान-ए-तमन्ना सोचा किए आएगी कभी फ़स्ल-ए-बहारी मुरझा गया आख़िर चमनिस्तान-ए-तमन्ना साक़ी है न सहबा है न साग़र न सुबू है बरहम हुई वो बज़्म-ए-ख़ुमिस्तान-ए-तमन्ना तूफ़ान की मौजों के करम पर है सफ़ीना है ख़ालिक़-ए-आलम ही निगहबान-ए-तमन्ना जीते हैं फ़क़त मौत की उम्मीद पे ऐ 'नूर' दफ़्तर में नहीं ज़ीस्त के उनवान-ए-तमन्ना