फिर खिंच गई अचानक हमदम कमान-ए-तक़दीर आए दिल-ए-हज़ीं पर जौर-ओ-सितम के फिर तीर ग़ैरों से जब मिले हम अपना बना के छोड़ा और कर सके न उस को करना था जिस को तस्ख़ीर औरों के चाक-क़िस्मत हम ने रफ़ू किए थे और सी सके न अपना अफ़्सोस चाक-ए-तक़दीर इस दर्जा सू-ए-ज़न है हर बात दिल शिकन है लाए कहाँ से हर दिन इक दिल नया ब-दिल-गीर पास-ए-वफ़ा हमारा मोहर-ए-दहन बना है किस तरह हो सकेगी अहवाल-ए-दिल की तफ़्सीर आज़ाद कब थी बुलबुल जो दाम में फँसी अब सय्याद ख़ुद रग-ए-गुल थी उस के हक़ में ज़ंजीर क्यों सुर्ख़ हो रही हैं फिर तीलियाँ क़फ़स की ऐ अश्क-ए-ख़ूँ नया गुल शायद खिलाए तक़दीर आया जो दर पे मुजरिम रहमत ने उस को बख़्शा क्या क़ाबिल-ए-मुआ'फ़ी अपनी नहीं थी तक़्सीर