फिर हुई शाम बयाबान को पागल निकला हाथ में ले के चराग़-ए-दिल-ए-बे-कल निकला तेरी महफ़िल को सजाने कई जुगनू आए चाँद लहरा के शब-ए-तार का आँचल निकला उम्र भर कर के सफ़र हम जो वहाँ तक पहुँचे हाए-क़िस्मत कि वो दरवाज़ा मुक़फ़्फ़ल निकला याँ तो मज़हब भी है तहज़ीब-ओ-तमद्दुन फिर भी मैं जिसे शहर समझता था वो जंगल निकला यूँ गिरानी ने तबीअ'त की सताया शब भर आँख से अश्क जो निकला भी तो बोझल निकला तू ने सर माँगा तो इस शहर में सब से पहले सर-ब-कफ़ तेरा दिवाना सू-ए-मक़्तल निकला रौशनी के लिए जब दिल को जलाया हम ने दिल से निकला तो धुएँ का कोई बादल निकला हम को तोहफ़े में जो बख़्शी गई इक उम्र-ए-तवील वक़्त के तौल में तोला तो वो इक पल निकला वक़्त-ए-रुख़्सत हुईं दुल्हन की जो आँखें बोझल क़तरा-ए-अश्क में लिपटा हुआ काजल निकला उस ने जो आब-ए-बक़ा कह के दिया था 'फ़रहत' मेरे तो वास्ते वो ज़हर-ए-हलाहल निकला