फिर इज़्तिराब-ए-शौक़ में ग़म से मफ़र कहाँ वो हुस्न-ए-इल्तिफ़ात वो हुस्न-ए-नज़र कहाँ तारीकी-ए-हयात से घबरा गया है जी देखें शब-ए-फ़िराक़ की फिर हो सहर कहाँ तेरे बग़ैर महफ़िल-ए-दिल भी उदास है ऐ हुस्न-ए-ना-शनास तुझे ये ख़बर कहाँ अब तक समझ रहा था जिसे तेरी रहगुज़र था इक फ़रेब-ए-शौक़ तिरी रहगुज़र कहाँ अर्सा हुआ कि बज़्म-ए-तमन्ना उजड़ चुकी पहली सी अब वो रौनक़-ए-शाम-ओ-सहर कहाँ जल्वों की ताब ला न सकी दिल की आँख भी फिर देखे किस तरह कोई ताब-ए-नज़र कहाँ इक चश्म-ए-लुत्फ़ का है तिरी मुंतज़िर 'कलीम' वर्ना जबीन-ए-शौक़ कहाँ संग-ए-दर कहाँ