फिर क्या था जो पर्दे में था रुस्वा तो नहीं था था राज़-ए-मोहब्बत मगर इफ़्शा तो नहीं था तुम जुर्म-ए-वफ़ा पर जो हो आमादा-ए-ताज़ीर ये सिर्फ़ मिरे दिल का तक़ाज़ा तो नहीं था क्या सोच के आई थी उसे देखने ख़िल्क़त कुछ मारका-ए-इश्क़ तमाशा तो नहीं था क्यूँ आ के मिरे ग़म का सहारा हुई उम्मीद इमरोज़ का ग़म था ग़म-ए-फ़र्दा तो नहीं था फिर किस लिए मा'तूब ज़माना था 'मुनव्वर' कहता न ग़ज़ल सोच के ऐसा तो नहीं था