फिर लौट के धरती पे भी आने नहीं देता वो पाँव ख़ला में भी जमाने नहीं देता मंज़ूर नहीं लम्हों की पहचान भी उस को और नाम दरख़्तों से मिटाने नहीं देता ख़ुश रहता है उजड़े हुए लोगों से हमेशा बसने नहीं देता वो बसाने नहीं देता मौजों के मुझे राज़ भी समझाता नहीं वो साहिल पे सफ़ीना भी लगाने नहीं देता दे देता है हर बार वही नाव पुरानी ख़्वाबों को समुंदर में बहाने नहीं देता ता'मीर नई चाहता है देखना हर-सू और नक़्श-ए-कुहन कोई मिटाने नहीं देता मसरूफ़ बुरा वक़्त मुझे रखता है 'बेताब' याद अच्छे दिनों की कभी आने नहीं देता