फिर रह-ए-इश्क़ वही ज़ाद-ए-सफ़र माँगे है वक़्त फिर क़लब-ए-तपाँ दीदा-ए-तर माँगे है सज्दे मक़्बूल नहीं बारगह-ए-नाज़ में अब आस्ताँ हुस्न का सज्दे नहीं सर माँगे है किस ने पहुँचा दिया उस होश-रुबा वादी में कि जहाँ वहशत-ए-दिल ज़ाद-ए-सफ़र माँगे है मेरी दुनिया के तक़ाज़ों ही पे मौक़ूफ़ नहीं दीन भी एक नया फ़िक्र-ओ-नज़र माँगे है इश्क़ को ज़ाविया-ए-दीद बदलना होगा जल्वा-ए-हुस्न नया ज़ौक़-ए-नज़र माँगे है सब की आँखों से बचा कर जो कभी लूटे थे वक़्त हर चोर से वो लाल-ओ-गुहर माँगे है दीन ओ दुनिया हो कि हो इश्क़ ओ हवस ऐ 'साग़र' हर कोई ख़ून-ए-जिगर ख़ून-ए-जिगर माँगे है