शजर-ए-इश्क़ हमें दार के मानंद भी है दिल किसी शाख़-ए-तरब-नाक से पैवंद भी है दिल-ए-नादाँ से नहीं अहल-ए-जहाँ से पूछो कोई मीसाक़-ए-मोहब्बत पे रज़ा-मंद भी है दरगुज़र बाम-ए-वफ़ा से कि जुनूँ-ख़ेज़ हवा ये चराग़ एक शब-ए-वा'दा का पाबंद भी है रात तन्हाई तआ'क़ुब में मुसलसल कोई चाप और जब इल्म हो आगे ये गली बंद भी है छोड़ भी आए वो घर भूल भी आए हैं वो याद दिल में कुछ टूटे हुए तीर के मानंद भी है दस्तक-ए-हिज्र से टूटी थी मिरी नींद सो अब रात भी बाक़ी है और ख़्वाब का दर बंद भी है