फिर सर-ए-दार-ए-वफ़ा रस्म ये डाली जाए गुल हो इक शम्अ तो इक और जला ली जाए दूर करनी हो जो तारीकी-ए-राह-ए-इख़्लास मशअ'ल-ए-अश्क-ए-नदामत ही जला ली जाए आइना मैं ने सर-ए-राहगुज़र रखा है ताकि अहबाब की कुछ ख़ाम-ख़याली जाए हाल ये तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पे हुआ करता है जैसे मछली कोई पानी से निकाली जाए तू इसे अपनी तमन्नाओं में शामिल कर ले हम से तो तेरी तमन्ना न सँभाली जाए आप के उठने पे महफ़िल का ये आलम पाया जैसे हँसते हुए चेहरों से बहाली जाए ख़स्तगी देखी है 'जावेद' फ़सील-ए-दिल की इस पे बुनियाद शब-ए-ग़म की न डाली जाए