तेरा अंदाज़-ए-सुख़न सब से जुदा लगता है बरबत-ए-दिल पे कोई नग़्मा-सरा लगता है वो दिया जिस से कि रौशन हो चराग़-ए-हस्ती ग़ौर से देखें हवाओं में घिरा लगता है हम हैं आग़ोश-ए-जुनूँ में तो तअ'ज्जुब कैसा वो भी तो दुश्मन-ए-अरबाब-ए-वफ़ा लगता है गर नहीं जल्वागरी बज़्म-ए-तरब में फिर भी तेरी ख़ुशबू से वहाँ तेरा पता लगता है दोनों हाथों से छुपाना तिरे चेहरे का मुझे सोचता हूँ तो तिरा दस्त-ए-दुआ लगता है जिस का मिलना भी क़यामत से नहीं कम 'जावेद' इस का मिलना भी मुझे रोज़-ए-जज़ा लगता है