फिर वही रात जो तन्हाई के आग़ोश रही इक उनीदी सी ग़ज़ल ख़्वाब में मदहोश रही हम से वो अजनबी और उन से थे अनजाने हम ता-अबद यूँ ही मोहब्बत ये फ़रामोश रही पर्दा-ए-चश्म में यादों के ज़ख़ीरे पुर-शोर झाँकती उन से जो तन्हाई वो ख़ामोश रही जब तलक पहुँची न वो महफ़िलों से महफ़िलों में तब तलक मेरी वो रुस्वाई भी पुर-जोश रही क्यूँ हो शर्मिंदा वो इंसाँ के जराएम पर यूँ क्यूँ ज़मीं शब की सियाही में रिदा-पोश रही आँख पे छाए हैं अरमान जो थे ज़ेर-ए-दिल दास्ताँ हर यहाँ हो के धुआँ रू-पोश रही बात फिसली थी जो कानों में ज़बाँ से लटकी तौक़ बन के वो ही ता-उम्र सर-ए-दोश रही