फ़िराक़-ए-यार में ऐसी भी एक शब आई चराग़ जल गया आँखों में नींद जब आई उमीद-ओ-बीम के आलम में थी निगाह-ए-शौक़ किसी की याद मिरे दिल में नीम-शब आई सहर के बाद भी था तेरा इंतिज़ार मुझे निगाह दर से हर इक बार तिश्ना-लब आई न शग़्ल-ए-बादा-कशी है न शौक़-ए-रामिश-ओ-रंग ये किस मक़ाम पर अब महफ़िल-ए-तरब आई ख़ुम-ओ-सुबू भी हैं लबरेज़ अब शराबों से ये देखना है कि रिंदों को नींद कब आई मैं तेरे शहर में तुझ से भी सर-कशीदा हूँ तू मुझ से मिलने सर-ए-राह बे-सबब आई सितारे डूब गए और शब तमाम हुई चराग़ बुझ गया आँखों में नींद तब आई न दिल में मौज-ए-तमन्ना न लब पे हर्फ़-ए-वफ़ा ये किस रविश पे 'सबा' ज़िंदगी है अब आई