गिला है अपने मुक़द्दर की बे-हिसी से हमें और इस से बढ़ के शिकायत है ज़िंदगी से हमें कभी निगार-ए-लब-ए-शो'ला-वश का ज़िक्र चला कभी हिसार-ए-ग़म-ए-जाँ मिला किसी से हमें कभी था क़ुर्ब में इक इज़्तिराब का आलम कभी क़रार मिला तेरी बे-रुख़ी से हमें कभी मलाल हुआ इल्तिफ़ात-ए-पैहम से कभी ख़ुशी थी बहुत तर्क-ए-दोस्ती से हमें कभी गुमाँ कि ये दुनिया है इक फ़रेब-ए-नज़र यक़ीन भी है ख़ुदा के वजूद ही से हमें हयात-ए-जेहद-ए-मुसलसल में क्यों है सरगर्दां ज़रा पता तो चले इल्म-ओ-आगही से हमें अगरचे दिल को मिली थी नवेद-ए-सुब्ह-ए-जमाल नजात मिल न सकी शब की तीरगी से हमें खड़े हैं दश्त-ए-बला-ख़ेज़ में बरहना-पा मिला है इज़्न-ए-सफ़र जज़्बा-ए-ख़ुदी से हमें 'सबा' ये कौन सी मंज़िल है दश्त-ए-इम्काँ में न आश्ना से ग़रज़ है न अजनबी से हमें