फूल खिलते ही कटा शाख़ से और मोल बिका लुत्फ़-ए-हस्ती है कली को गुल-ए-तर होने तक सफ़र-ए-ज़ीस्त की आख़िर है ग़रज़ ग़ायत क्या राज़ खुलता नहीं अंजाम-ए-सफ़र होने तक तू है आग़ोश में उस की तुझे एहसास नहीं बेबसी है तेरी मुर्शिद की नज़र होने तक या ख़ुदा कर न मुझे कैफ़-ए-दुआ से महरूम कि दुआएँ हैं दुआओं का असर होने तक पर-ए-पर्वाज़ निकल आए जूँही नीचे गिरा आदम अफ़्सुर्दा रहा ख़ुल्द-बदर होने तक जाग उठे तो कहाँ आलम-ए-नैरंग-ए-ख़याल ताबिश-ए-महफ़िल-ए-अंजुम है सहर होने तक