फ़ुग़ाँ की तरह है अज़ाँ की तरह है हर इंसान शाह-ए-जहाँ की तरह है यक़ीं मुद्दतों से गुमाँ की तरह है कि हर मौसम-ए-गुल ख़िज़ाँ की तरह है किसी ग़म से कमतर नहीं कोई भी ग़म कि हर ग़म ग़म-ए-ना-गहाँ की तरह है ये किस की सदा है जो मैं सुन रहा हूँ शिकस्त-ए-दिल-ए-दोस्ताँ की तरह है जहाँ आरज़ू बन के बरसों रहे थे वो दिल आज ख़ाली मकाँ की तरह है तिरे साथ गुज़रा हुआ एक लम्हा किसी लम्हा-ए-जावेदाँ की तरह है जिसे देखता हूँ मैं अपने वतन में परेशान उर्दू ज़बाँ की तरह है