हमारे घर की फ़ज़ाओं में यास काफ़ी है चराग़ जलते रहें आस-पास काफ़ी है निगह मिलाते हुए डर रहे हैं लोगों से कि हर निगाह में ख़ौफ़-ओ-हिरास काफ़ी है वहीं पे है वो जहाँ रस्म-ओ-राह ख़त्म हुई तो ये कहो कि अभी तक उदास काफ़ी है मैं देखता ही रहा रंग उस के चेहरे का मैं जानता था कि वो ग़म-शनास काफ़ी है ख़ुलूस कहते हैं जिस को वो अपने पास कहाँ यही सुना है कि औरों के पास काफ़ी है ख़बर किसी को नहीं कौन किस तरह डूबा मगर हुजूम तो दरिया के पास काफ़ी है नज़ाकत-ए-दिल-ए-'इक़बाल' कौन समझेगा ये चंद लोग रहें अपने पास काफ़ी है