फूँक दो मेरे आशियाने को रौशनी तो मिले ज़माने को हम तो भटके क़दम क़दम लेकिन रास्ता दे दिया ज़माने को लोग क्यूँ एक दूसरे से मिलें सुन रहे हैं मिरे फ़साने को इतने ठहराव से न देख मुझे रुख़ बदलना पड़े ज़माने को मस्लहत-साज़ रो भी लेते हैं वक़्त के साथ मुस्कुराने को अपनी तस्वीर सामने रख कर देखता हूँ तिरे ज़माने को लोग सब की ख़ुशी समझते हैं चंद कलियों के मुस्कुराने को हर तरफ़ है अब एक सन्नाटा और आवाज़ दो ज़माने को ख़ुद न तारीख़-ए-वक़्त बन 'अंजुम' अपनी तारीख़ दे ज़माने को