मुतमइन बैठा हूँ ख़ुद को जान कर और क्या मिलता ख़ुदा को मान कर मेरे दुश्मन की शराफ़त देखिए दार करता है मुझे पहचान कर ज़ेहन-ओ-दिल तफ़रीक़ के क़ाइल नहीं क्या करूँ अपना पराया जान कर दोस्तो रूदाद-ए-मंज़िल फिर कभी रास्ता चुप था मुझे पहचान कर ज़िंदगी से अब भी समझौता नहीं जी लिए तेरी ज़रूरत जान कर अपने अंदर रास्ते मिलने लगे रुक गया था ख़ुद को मंज़िल जान कर शेर तो 'अंजुम' अता-ए-ग़ैब है फ़ाएदा क्या लफ़्ज़-ओ-मा'नी छान कर